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उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता पर हाईकोर्ट ने सरकारों से मांगा जवाब, लिव-इन बना विवाद का केंद्र

उत्तराखंड में हाल ही में लागू की गई समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code – UCC) अब कानूनी चुनौती के घेरे में आ गई है। नैनीताल स्थित उत्तराखंड हाई कोर्ट ने इस कानून की वैधता को लेकर दायर दो याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए राज्य और केंद्र सरकार को छह सप्ताह में जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने इस दौरान लिव-इन रिलेशनशिप के पंजीकरण समेत विवाह और तलाक से जुड़े प्रावधानों पर विशेष ध्यान दिया।

लिव-इन को लेकर बढ़ता विवाद

UCC में लिव-इन रिलेशन को कानूनी मान्यता देने और इसके लिए पंजीकरण अनिवार्य करने का प्रावधान किया गया है। इस मुद्दे को लेकर वकील सुरेश सिंह नेगी और अल्मासुद्दीन सिद्दीकी की ओर से याचिकाएं दाखिल की गई हैं। याचिका में कहा गया है कि लिव-इन को वैधता देना विवाह संस्था को कमजोर कर सकता है और यह संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन करता है। याचिका में यह भी सवाल उठाया गया कि लिव-इन में प्रवेश करने की आयु 18 वर्ष है, जबकि विवाह के लिए लड़की की न्यूनतम उम्र 18 और लड़के की 21 वर्ष रखी गई है। यह एक प्रकार का कानूनी असंतुलन पैदा करता है।

हाई कोर्ट की सख्ती और सरकार से जवाब तलब

मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंदर और न्यायमूर्ति आशीष नैथानी की खंडपीठ ने याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वे छह सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करें। सुनवाई के दौरान भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए उपस्थित हुए और सरकार की ओर से पक्ष रखा।

क्या कहते हैं याचिकाकर्ता

अधिवक्ता सुरेश सिंह नेगी ने कहा कि UCC लिव-इन संबंधों को विवाह के बराबर दर्जा देने का प्रयास कर रहा है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि विवाह और तलाक की प्रक्रिया एक जटिल और दीर्घकालीन प्रक्रिया है, जबकि लिव-इन को सिर्फ आवेदन देकर मान्यता दी जा रही है। इससे सामाजिक और नैतिक ढांचे पर प्रभाव पड़ सकता है। दूसरी याचिका, अल्मासुद्दीन सिद्दीकी द्वारा दायर की गई है, जिसमें कहा गया कि यूसीसी के कई प्रावधान कुरान की शिक्षाओं के विपरीत हैं। उनका कहना है कि मुस्लिम समुदाय के लोगों को विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मामलों में कुरानिक कानून का पालन करने का संवैधानिक अधिकार है, और UCC उस अधिकार का अतिक्रमण करता है।

लिव-इन पंजीकरण : निजता बनाम नियंत्रण

UCC के तहत लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों को 30 दिनों के भीतर रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य किया गया है। यदि रजिस्ट्रेशन नहीं कराया गया, तो तीन माह की जेल या ₹10,000 का जुर्माना भुगतना पड़ सकता है। याचिकाकर्ताओं का दावा है कि यह प्रावधान नागरिकों की निजता के अधिकार पर सीधा हमला है।

गोद लेने और वैध संतान का दर्जा भी मुद्दा

इस कानून के अंतर्गत लिव-इन कपल्स को गोद लेने का अधिकार भी दिया गया है और लिव-इन से जन्मे बच्चों को वैध संतान माना जाएगा। यह सामाजिक दृष्टिकोण से भले ही प्रगतिशील हो, लेकिन पारंपरिक धार्मिक मान्यताओं वाले वर्गों में इसे लेकर आपत्ति है। उत्तराखंड 27 जनवरी 2025 को UCC को लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना। राज्य सरकार ने इसे ऐतिहासिक कदम बताया, लेकिन जमीनी स्तर पर इसे लेकर विभिन्न वर्गों में असंतोष है। खासकर मुस्लिम समुदाय और जनजातीय समूहों में इस बात को लेकर भ्रम है कि उनकी धार्मिक स्वतंत्रता और परंपरागत अधिकारों का क्या होगा।

अनुसूचित जनजातियां क्यों हैं बाहर

एक और बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि यूसीसी अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यदि यह समानता का कानून है, तो फिर अपवाद क्यों? क्या यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है? हाई कोर्ट में यह मामला अब गंभीर बहस का रूप ले चुका है। अगले छह सप्ताह में राज्य और केंद्र सरकार को अपना पक्ष रखना होगा। इसके बाद कोर्ट तय करेगा कि UCC संविधान के अनुरूप है या नहीं।

इस कानूनी चुनौती ने UCC को लेकर चल रही सामाजिक और राजनीतिक बहस को एक नया मोड़ दे दिया है। एक ओर सरकार इसे समानता और आधुनिकता की दिशा में बड़ा कदम बता रही है, तो दूसरी ओर धार्मिक और सामाजिक संगठनों का एक वर्ग इसे संविधान के मूल ढांचे और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ बता रहा है।