Homeउत्तराखण्डपहाड़ों से विलुप्त होती धान की परंपरागत किस्में

पहाड़ों से विलुप्त होती धान की परंपरागत किस्में

गोपेश्वर: उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के खेतों में कभी शान से लहराने वाली और अपनी विशेष खुशबू बिखेरने वाली साठी (धान) की कई परंपरागत प्रजातियां या तो पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं.

स्वाद, पौष्टिकता और गुणवत्ता के लिए मशहूर इन प्रजातियों का धान अब उत्तराखंड में मिलना दुर्लभ हो गया है. गढ़वाल-कुमाऊं क्षेत्र में कभी धान की दो हजार से अधिक प्रजातियां उगाई जाती थीं, लेकिन अब इनकी संख्या घटकर मात्र 330 रह गई है.

खेती के विशेषज्ञ ईश्वरी प्रसाद ड्यूडी बताते हैं कि गढ़वाल क्षेत्र में पहले दूधिया, लंबू साठी, बकरूपा बासमती, चौरिया, काला साठी, पारो बासमती जैसी प्रजातियां प्रमुखता से उगाई जाती थीं, लेकिन अब ये सभी विलुप्ति की ओर बढ़ रही हैं.

खेती से जुड़े आशीष रौतेला बताते हैं कि पहाड़ के खेतों में कभी गोपिया साठी, चौथिया साठी, गीरुली साठी की धूम थी, लेकिन अब ये प्रजातियां बिल्कुल गायब हो गई हैं. तराई के क्षेत्रों में भी अब लाल राजमती और दूधा बुंदली जैसी किस्में नहीं उगाई जा रही हैं.

बीज संरक्षण के क्षेत्र में कार्यरत बी.एस. कठैत बताते हैं कि गढ़वाल के खेतों में कभी दूधा बुंदली, लाल राजमती, कस्तूरी (जो तराई में उगाई जाती थी) बासमती और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तौलिया साठी की खेती की जाती थी, लेकिन अब ये प्रजातियां भी धीरे-धीरे विलुप्त हो रही हैं. किसान लखपत सौर कहते हैं कि यहां कभी धेसू टाईचुन, धानेष और चिनाकौर जैसी धान की खूब खेती होती थी, लेकिन अब इनके बीज दुर्लभ हो गए हैं.

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