इस संसार रूपी दुर्ग को जो शक्ति उत्पन्न करती है, उसे चलाती है और नष्ट करती है, उस शक्ति का नाम दुर्गा है. वही शक्ति शरीर, मन और प्रकृति का निर्माण, संचालन और विनाश करती है. देवी दुर्गा की आठ भुजाओं में आठ शस्त्र और मुद्राएं हैं, जिनका गहरा प्रतीकात्मक अर्थ है. उनके पहले हाथ की मुद्रा आशीर्वाद का संकेत देती है, जो साधक को यह आश्वासन देती है कि चिंता मत कर.
एक हाथ में कमल है, जो आनंद का प्रतीक है. एक हाथ में शंख है, जो ज्ञान का प्रतीक है. एक हाथ में त्रिशूल है, जो तीन गुणों – सत्व, रजस और तमस – का संकेत करता है, जो उस एक शक्ति पर आधारित हैं. एक हाथ में धनुष है, जिसका अर्थ है कि तुम्हारा लक्ष्य आत्म-अनुसंधान होना चाहिए.
दुर्गा के हाथ में तलवार है, जो विवेक का प्रतीक है, और भाला, जो धारणा और एकाग्रता का संकेत है. इसी एकाग्रता की शक्ति से देवी दुर्गा राक्षसों का नाश करती हैं. जब वह रौद्र रूप धारण करती हैं तो उनका नाम काली होता है, और जब आशीर्वाद देती हैं, तो वह मंगला कहलाती हैं. जब वह सृष्टि की उत्पत्ति करती हैं तो उन्हें कुष्मांडा कहा जाता है, और कार्तिकेय को जन्म देने पर वह स्कंदमाता कहलाती हैं. महिषासुर का वध करने के बाद जब वह शांत रूप धारण करती हैं, तो उन्हें कात्यायनी के नाम से जाना जाता है.
दुर्गा का बाहरी स्वरूप प्रायः मंदिरों में मूर्ति के रूप में देखा जाता है, परंतु मेरी दृष्टि में दुर्गा के अनेक स्वरूप हैं. हर स्त्री, हर कन्या, ज्ञान, विज्ञान और तंत्र में दुर्गा का स्वरूप निहित है. जब और जहां भी हम सात्विक शक्तियों को अनुभव करते हैं, वहीं दुर्गा का रूप होता है. कला, नृत्य, संगीत और चित्रकला भी दुर्गा के राजसिक स्वरूप माने गए हैं. शास्त्रों के अनुसार, सभी पदार्थों के मूल में यही पराशक्ति है, जो न केवल हमारी देह में, बल्कि हमारे मन और आत्मा में भी विद्यमान है. यह शक्ति निराकार और साकार दोनों रूपों में है, जो पदार्थ भी है और ऊर्जा भी.
तंत्र शास्त्र के अनुसार, पदार्थ और ऊर्जा एक ही हैं. ऊर्जा का संघटित रूप पदार्थ है और पदार्थ का सूक्ष्म रूप ऊर्जा है. हम इसी दिव्य ऊर्जा को ‘शक्ति’ कहते हैं. मानव जीवन भी बिना शक्ति के अधूरा है. यह शक्ति हमें चंद्रमा, सूर्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष, और सभी प्राकृतिक तत्वों में दिखती है. हम इसी शक्ति के व्यक्त रूप हैं, जबकि वह स्वयं अव्यक्त रूप है. यही शक्ति हमें हमारी माता के रूप में दर्शन देती है और यह सृजन की जननी है.
योगियों ने इस पराशक्ति को कुंडलिनी कहा है, वैष्णवों ने इसे ‘लक्ष्मी’, और शैवों ने ‘गौरी’ या ‘अंबा’ का नाम दिया है. यही शक्ति मनुष्य के शरीर में मूलाधार चक्र में स्थित होती है और ब्रह्मांड की सृजनकर्ता भी है. देवी के त्रिरूप – सृजनकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता – का नवरात्रि के दिनों में विशेष पूजन होता है. तंत्र के अनुसार, शक्ति मूलाधार चक्र में कुंडली मारकर बैठी होती है.
जब यह शक्ति जाग्रत होती है, तो वह स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, और आज्ञा चक्रों को भेदती हुई सहस्रार तक पहुंचती है. स्वाधिष्ठान चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति विषय-वासना से मुक्त हो जाता है. अनाहत चक्र के जागरण से प्रेम की असीम शक्ति प्रकट होती है, जिससे हिंसक व्यक्ति भी शांत हो जाता है.
विशुद्धि चक्र के जाग्रत होने पर वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है, और आज्ञा चक्र के जाग्रत होने पर समस्त ज्ञान के द्वार खुल जाते हैं. जब कुंडलिनी जाग्रत होकर शिव चेतना से मिलती है, तो महाआनंद की अनुभूति होती है. इस यात्रा में अनुसंधान करके इस शक्ति को जाग्रत करें.
नवरात्रि का पर्व इस आंतरिक यात्रा का माध्यम है, जिसमें हम अपने भीतर की पराशक्ति को पहचानते हैं और उससे एकाकार होने का प्रयास करते हैं. यही नवरात्रि का मुख्य उद्देश्य है – उस मूल आद्याशक्ति से जुड़कर अपने जीवन को ऊर्जा और शक्ति से परिपूर्ण करना.
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