किसी भी देश, राज्य, शहर और गांव को पहचान वहां के नागरिक देते हैं. इतिहास हो या वर्तमान सब नागरिकों से बनता है. इसलिए पहली लड़ाई नागरिकों के लिए होनी चाहिए. उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की लड़ाई भी, हमारे नागरिकों की बेहतरी के लिए ही थी.
(Politics in Uttarakhand)
अलग संस्कृति और भूगोल का संरक्षण इसका एक छोटा सा हिस्सा थे जबकि बड़ा संघर्ष यह था कि नागरिकों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मौके मिलें. यदि बदलाव सिर्फ राजनीतिक या सामाजिक भूगोल बदलने से आ जाते तो हमारे राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की सुविधाएं बद से बदतर नहीं होतीं.
गैरसैंण का आंदोलन जरूरी है लेकिन हमारी प्राथमिकता कर्णप्रयाग का आंदोलन होनी चाहिए. बीते दिनों हुए इन दोनों ही आंदोलनों में हजारों लोग थे, लेकिन गैरसैंण आंदोलन की मांग राजधानी थी और कर्णप्रयाग की महज एक अस्पताल.
राज्य के नेताओं और नागरिकों की मानसिकता बदलने के लिए कर्णप्रयाग जैसी सुविधाओं का हल पहले होना चाहिए. नहीं तो गैरसैंण विधानसभा में बैठकर भी विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ने जैसे ही फैसले होंगे और नागरिक फिर ठगा महसूस करेंगे.
(Politics in Uttarakhand)
उत्तराखंड भले ही देश का एक छोटा राज्य है लेकिन इसकी पहचान बहुत बड़ी है. अपने हक के लिए सड़कों पर लड़ना हो या देश के लिए सीमा पर खून बहाना, पहाड़ियों की बराबरी कोई नहीं कर सकता. आजादी के बाद हुए बहुत से आंदोलनों में हमारा राज्य अगुवाई कर चुका है. इसके बावजूद हमारे नागरिक मूलभूत सुविधाओं के लिए भी जूझ रहे हैं. अतीत को बहुत न कुरेदते हुए हाल-फिलहाल में आते हैं.
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हिमाचल की तरह राज्य की नींव पड़ते समय यशवंत परमार जैसा पहाड़ की रगों में बसा हुआ नेता हमें नहीं मिला. एनडी तिवारी जैसे विकास पुरुष जरूर थे लेकिन उन्होंने भी राज्य से ज्यादा अपनी राजनीतिक हदों की परवाह की. हम अभागे रहे कि विपिन त्रिपाठी, इंद्रमणि बडोनी जैसे पहाड़ को जीने वाले नेता राज्य को नवजात ही छोड़कर चले गए. ये लोग होते तो शायद इतिहास की तरह हमारा वर्तमान भी समृद्ध होता.
राज्य बनने के बाद लखनऊ से हांके जाने वाले उत्तराखंडियों की किस्मत दिल्ली के हाथ चली गई. दिल्ली से भेजे गए बिना रीढ़ के मुख्यमंत्रियों को गैरसैंण बैठाओ या देहरादून, हासिल शून्य ही होगा. जैसे अब तक होते आया है.
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सरकारें अपने इकोनॉमिक सर्वे में बड़े आकर्षक आंकड़े पेश करती हैं. उसके अधिकारी इसे और शानदार पैकेजिंग के साथ दिखाते हैं जिससे राज्य की चमचमाती तस्वीर नजर आने लगती है. पिछले महीने ही एन ए डी के अपर महानिदेशक ने एक बयान जारी कर बताया कि 24वें साल में उत्तराखंड राज्य की अर्थव्यवस्था का आकार करीब 24 गुना बढ़ चुका है, जबकि प्रतिव्यक्ति आय 17 गुना हो चुकी है. प्रतिशत और गुना में बताई जा रही ये प्रतिव्यक्ति आय महज दो लाख, साठ हजार, दो सौ एक रुपए है. हालांकि ये भी केवल आंकड़ा है. इस समय दस लाख से ज्यादा लोग सरकारी राशन के भरोसे चल रहे हैं. मतलब ये एक लाख से भी कम आय वाले हैं.
ऐसे ही कई अलग-अलग वर्गों में बांटते चलें तो यह आंकड़ा धराशायी हो जाएगा. आंकड़े ये भी बताते हैं कि उत्तराखंड में बेरोजगारी दर में भी कमी आई है. साल 2021-22 में राज्य में बेरोजगारी दर साढ़े आठ फ़ीसदी थी. जो कि साल 2022-23 घटकर लगभग पांच फ़ीसदी रह गई है. लेकिन धरातल पर सरकारों के दावे हकीकत से कोसों दूर होते हैं.
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सरकारी विभाग, सेवायोजन कार्यालय का डाटा बताता है कि राज्य में पिछले पांच सालों में महज सत्रह हजार युवाओं को रोजगार मिल पाया है. जबकि बीते पांच सालों के अंदर पंजीकृत बेरोजगारों का आंकड़ा 9 लाख के करीब पहुंच गया है. जिन्हें रोजगार मिला है उनमें भी कोई ऐसी नौकरी नहीं जिसे सम्मान से किया जा सके.
नयी संस्कृति के अनुरूप अब सम्मान से की जाने वाली नौकरी का नियुक्ति पत्र तो या मंत्री या फिर मुख्यमंत्री ही जारी करते हैं. ये हाल तब है जब राज्य के सरकारी विभागों में इस समय 68 हजार 586 पद खाली पड़े हुए हैं. ‘क’ से लेकर ‘घ’ वर्ग तक तमाम पद खाली हैं.
उत्तराखंड में रोजगार के बाद पलायन की प्रमुख वजहों में शिक्षा और स्वास्थ्य है. इसमें भी सरकारी घोषणाएं तो बहुत आकर्षक हैं लेकिन आंकड़े बड़े डरावने हैं. राज्य में सबसे ज्यादा जो पद खाली हैं वह स्कूलों में हैं. प्राथमिक के 11,418 और माध्यमिक के 8,130 पद खाली हैं. सरकारी स्कूलों में प्रधानाचार्यों के 1386 में लगभग 941 पदल खाली हैं.
पहाड़ों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की संख्या शून्य के करीब है. पिथौरागढ़ जैसे जिलों से इ.एन.टी का इलाज कराने के लिए भी लोगों को हल्द्वानी आता पड़ता है. न्यूरो, हार्ट का इलाज तो सपना जैसा है.
ये कुछ आंकड़े हमने केवल और केवल इसलिए सामने रखे हैं ताकि यह प्राथमिकता तय हो, लड़ाई कहां से शुरू होनी चाहिए? कर्णप्रयाग से या गैरसैंण से?
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आंकड़े बताते हैं, राजनीतिक भूगोल बदलने से नियति नहीं बदलती. ऐसा होता तो 24 साल में ये दुर्गत्त नहीं हुई होती. नियति बदलने के लिए मानसिकता बदलनी जरूरी है और मानसिकता बदलने के लिए संघर्ष जरूरी हैं. ऐसा संघर्ष जिससे राज्य का हर नागरिक जुड़ा हो, ऐसा संघर्ष, जिससे व्यक्ति विशेष के नहीं, हर नागरिक के हित सधते हों.ये संघर्ष, संसाधनों की लड़ाई से ही पैदा होगा.
वरिष्ठ पत्रकार बीडी कसनियाल कहते हैं रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूल सवालों पर ही राज्य फिर एकजुट हो सकता है. पूरे राज्य को जोड़ने के लिए संसाधनों को समृद्ध करने की लड़ाई लड़नी होगी. यहां सफलता पाने का मतलब होगा स्वाभाविक रूप से सत्ता में जनता का दखल मजबूत होना. इसी लड़ाई से फिर निकलेंगे विपिन त्रिपाठी और इंद्रमणि बडोनी जैसे नेता.
पहाड़ से प्रेम करने वाले लोग सत्ता में होंगे तो गैरसैंण राजधानी बनाने के लिए आंदोलन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.
(Politics in Uttarakhand)