देहरादून-हल्द्वानी जैसे मैदानी इलाकों में खुद का मकान बनाना पहाड़ के लोगों का सपना है. इस रास्ते की सबसे बड़ी मुश्किल है आसमान छूती जमीन की कीमत. यह बात छुपी नहीं है कि उत्तराखंड में भू-माफियाओं का एक बड़ा नेक्सस एक्टिव है. क्या कभी सोचा है कि जमीन की कीमत कैसे बढ़ती है या कौन है जो भू-माफियाओं को शह देता है. समझते हैं उत्तराखंड में शहरीकरण की राजनीति और इससे जुड़े खतरे.
(Politics of urbanisation in Uttarakhand)
दो हजार ग्यारह की जनगणना के अनुसार देहरादून शहर का क्षेत्रफल पैंसठ वर्ग किलोमीटर था. दो हजार अठारह में यह तीन सौ प्रतिशत बढ़कर एक सौ छियानवे वर्ग किलोमीटर हो गया. इसी समय ग्यारह वर्ग किलोमीटर का हल्द्वानी तैंतालिस वर्ग किलोमीटर हो गया.
सात सालों में आखिर शहर का आकार कैसे बढ़ गया? इसके लिये कुछ तकनीकी शब्दावली समझने की जरूरत है. जैसे शहर या नगर क्या है?
राम आहूजा की किताब भारतीय समाज में दी गयी शहर की परिभाषा में स्पष्ट है कि जब किसी भी इलाके में पिचहत्तर फीसदी से ज्यादा आबादी, खेती के अलावा और काम करने लगती है तो वह इलाका शहर घोषित किया जा सकता है. इन शहरों में लोकतंत्र की बहाली के लिए स्वशासी स्थानीय निकायों का गठन किया जाता है. इसे आम भाषा में शहरी स्थानीय निकाय या लोकल बॉडी या सिर्फ शहरी निकाय भी कह दिया जाता है.
मुनिसिपालिटी, मुन्सिपल कारपोरेशन, केंट एरिया जैसे आठ प्रकार के निकायों के रूप में यह काम करते हैं. इनका काम अपने शहर का विकास करना है. उत्तराखंड में अभी 102 शहरी निकाय हैं.
शहरी निकाय भारतीय राजनीति की पहली कक्षा है. कहा जाता है कि यहां हमारे नेता बिना आय के सरकार चलाना सीखते हैं. कैसे सीखते हैं इसका एक उदाहरण उत्तराखंड के शहरी निकाय हैं. जहाँ किसी भी शहरी निकाय के पास इतनी आय नहीं है कि वह अपने खर्च निकाल सके. आमदनी अठन्नी, खर्चा रूप्या वाली कहावत तक, उत्तराखंड के शहरी निकायों के लिये सही नहीं बैठ पाती क्योंकि ये निकाय चवन्नी कमा पाने में भी असमर्थ हैं.
आंकड़ा देखें तो शहरी निकाय पूरी तरह से केंद्र और राज्य सरकार से मिलने वाले अनुदान से चलता है. उत्तराखंड में शहरी निकाय पिछले तीन सालों में अपने खर्च का 10, 15 और 14 प्रतिशत ही कमा पाये हैं. शहरी निकाय, कमाएगा नहीं तो लोगों को देगा क्या. साफ़ पानी, सफाई, पार्किंग और स्ट्रीट लाइट जैसे अनेक काम उसके जिम्मे हैं. ऐसे में होता क्या है इसे उत्तराखंड के निगमों की हालत से समझा जा सकता हैं.
केंद्र सरकार हर साल स्वच्छता सूचकांक के आधार पर देश के नगर निगमों की एक लिस्ट जारी करती है. 2023 में जारी की गयी 444 नगर निगमों की लिस्ट में उत्तराखंड की स्थिति कुछ इस तरह है –
लिस्ट में देहरादून शहर का स्थान 68 है, इसी तरह हरिद्वार का 176, रुड़की का 180, हल्द्वानी का 211, ऋषिकेश का 304, कोटद्वार का 348 और रुद्रपुर का 417 है.
एशियन डेवलपमेंट बैंक की एक रिपोर्ट को मानें तो उत्तराखंड के सिर्फ एक चौथाई शहरी निकाय ही जनता को उसकी औसत जरूरत का पानी दे पाते हैं. 92 शहरी निकायों के अधिकार क्षेत्र में से सिर्फ 25 कस्बों में ही सीवरेज सिस्टम है वो भी आधा-अधूरा, जिसमें कुल शहरी आबादी का 20% सीवर नेटवर्क से जुड़ा हुआ है. शहरी निकायों में वेस्ट मैनेजमेंट एक बड़ी समस्या है. उत्तराखंड के किसी भी शहरी निकाय के पास इस समस्या का कोई उचित हल नजर नहीं आता.
यातायात और पार्किंग इन निकायों में एक बड़ी समस्या के रूप में दिखता है. पहाड़ी कस्बों में लम्बे-लम्बे जाम की तस्वीरें अक्सर सामने आती रहती हैं. जोशीमठ, पहाड़ी कस्बों में हो रहे विकास या शहरीकरण के परिणामों का एक उदाहरण है. कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल में भूगोल के प्रोफेसर पीसी तिवारी अपने एक अध्ययन में उत्तराखंड के पहाड़ों में हो रहे शहरीकरण की प्रक्रिया को अनप्लान्ड, अनरेग्युलेटेड, और अनसिस्टमेटिक मानते हैं.
(Politics of urbanisation in Uttarakhand)
कुल मिलाकर उत्तराखंड के शहरी निकाय अपना काम करने में फेल हैं. जैसा की पहले बताया जा चुका है, शहरी स्थानीय निकाय भारतीय राजनीति की पहली कक्षा है, परीक्षा यही है कि बिना आय के सरकार चलाओ. यहीं से भू-माफ़ियाओं का रास्ता भी निकलता है.
ग्रामीण इलाकों की जमीन बेचना सरदर्दी का काम है. शहर के नाम पर जमीन बेचना आसान होता है. सरकार समय-समय पर शहरों से लगे ग्रामीण इलाकों को नगर में शामिल करती है. ग्रामीण इलाके जब शहर में आते हैं तो कुछ नये टैक्स उन पर लागू होते हैं. जिनसे नगर पालिका और नगर निगम जैसे निकाय अपनी आय में बढ़ोत्तरी दिखा लेते हैं. राज्य व केंद्र से अनुदान मांगने को नया इलाका मिल जाता है. नेता निकाय बनाकर वाह-वाही के साथ जमीन भी लूटते हैं.
जब कोई ग्रामीण इलाका शहर में शामिल होता है तो उस इलाके की जमीन के सर्किल रेट भी बढ़ जाते हैं. सर्किल रेट किसी इलाके में प्रॉपर्टी का न्यूनतम रेट होता है यानी उससे कम पर जमीन की खरीद-फरोख्त नहीं हो सकती. इस पूरी प्रक्रिया का सीधा फ़ायदा भू- माफ़िया उठाते हैं.
(Politics of urbanisation in Uttarakhand)
कमज़ोर भू-कानून के चलते कम दाम में ख़रीदी गयी ग्रामीण जमीन अब शहर में महंगे दाम पर बिकती है. अनेक मौकों पर निकायों के पास तनख्वाह देने तक रूपये नहीं होते हैं इसलिये यह घूसखोरी के अड्डे बनते हैं. दबंगई, भ्रष्टाचार और घूसखोरी के कारण शहरों में बेतरतीब ढंग से निर्माण होता है.
उत्तराखंड में पंचायतों को विकास के नाम पर निकायों में तब्दील तो किया गया लेकिन मूलभूत सुविधाओं में इजाफा नहीं हो पाया.
कुछ दिनों बाद उत्तराखंड में निकाय चुनाव हैं. साफ़ पानी, सफाई, पार्किंग और स्ट्रीट लाइट जैसे सभी मुद्दे जस के तस खड़े हैं. पर आप और हम दोनों जानते हैं उत्तराखंड में निकाय चुनाव के मुद्दे क्या होंगे.
(Politics of urbanisation in Uttarakhand)