उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में भारत-चीन सीमा के पास बसे ऊंचाई वाले गांवों में आजकल एक अजीब सा सन्नाटा पसरा है. हरसिल, मुखबा, बगोरी, धाराली, सुखी, पुराली, झाला और जसपुर जैसे आठ गांवों में अब नौजवान बहुओं और बच्चों की चहल-पहल कम होती जा रही है. ऐसा नहीं है कि ये लोग मजबूरी में या गरीबी के कारण गांव छोड़ रहे हैं. वजह है कुछ और – गांव के स्कूलों में पढ़ाई का स्तर वो नहीं, जो आज के मां-बाप अपने बच्चों के लिए चाहते हैं. इसीलिए महिलाएं अपने बच्चों को लेकर देहरादून और उत्तरकाशी जैसे शहरों में जा रही हैं, जबकि पुरुष गांव में रहकर सेब के बगीचे और पर्यटन का काम संभाल रहे हैं.
(uttarkashi border villages women-kids migrating)
पढ़ाई के लिए परिवार से दूरी
अनुप्रिया रावत हरसिल के पास एक गांव में रहती थीं, लेकिन अब वो अपने बच्चे के साथ देहरादून में हैं. उन्होंने एक अखबार से बात करते हुए कहा, “अकेले शहर में रहना, पति से दूर, कोई नहीं चाहता. लेकिन बच्चों के भविष्य के लिए ये कुर्बानी देनी पड़ रही है. मेरे जैसे कई और महिलाएं भी गांव छोड़कर चली गईं.” उनकी बात में नाराजगी नहीं, बस एक मजबूरी झलकती है. इन गांवों में ज्यादातर एक ही हाल है. धाराली की आशा पंवार सालों पहले अपने बच्चों के साथ उत्तरकाशी आ गईं. उनके पति गांव में ही हैं. आशा बताती हैं, “गांव के स्कूलों में साफ-सफाई की कमी है, टीचर नहीं हैं. अब वहां न बहुएं दिखती हैं, न स्कूल जाने वाले बच्चे. गांव लगभग खाली हो चुके हैं.” उनके बच्चे अब 16 और 11 साल के हैं, और वो शहर में ही पढ़ रहे हैं.
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इन आठ गांवों में सिर्फ एक इंटर स्कूल है. कई गांवों में प्राइमरी स्कूल हैं, लेकिन बगोरी में तो वो भी नहीं. जहां स्कूल हैं, वहां दो टीचर सारी कक्षाओं और सारे विषयों को पढ़ाते हैं. गांव वालों का कहना है कि ये स्कूल नाम के लिए हैं. साफ-सफाई नहीं होती, टीचर आते-जाते नहीं. ऐसे में मां-बाप को लगता है कि बच्चों का भविष्य गांव में नहीं बन सकता.
कमाई अच्छी, लेकिन परिवार बिखरा
हालांकि, इन गांवों में पैसों की कमी नहीं है. सेब की खेती से अच्छी कमाई होती है, और चारधाम यात्रा की वजह से पर्यटन भी चलता है. पुरुष गांव में रहकर ये धंधे संभालते हैं. हरसिल के मधवेंद्र रावत कहते हैं, “अपनी पत्नी और बच्चों से दूर रहना मुश्किल है, लेकिन गांव में रहकर हम आर्थिक तौर पर मजबूत हैं. एक बार हमारे गांव के एक शख्स ने अपने बीमार पिता को हेलिकॉप्टर से अस्पताल पहुंचाया था. ये हमारी तरक्की दिखाता है. पर परिवार के बिना रहना आसान नहीं, खासकर बीमारी या त्योहारों के वक्त.”
सरकार का दावा और हकीकत
सरकार के अफसरों का कहना कुछ और है. भटवारी के ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर हर्षा रावत बताते हैं, “गांवों के सरकारी स्कूलों में टीचर, इमारत और दूसरी सुविधाएं ठीक हैं. ये ‘वाइब्रेंट विलेज’ हैं, जहां खास फंड आता है. लोग शहर जा रहे हैं क्योंकि वो वहां की पढ़ाई अफोर्ड कर सकते हैं. उन्हें अपने गांवों से लगाव दिखाना चाहिए.” लेकिन गांव वाले कहते हैं कि कागजों में सब ठीक हो सकता है, पर असल में टीचर कम हैं और पढ़ाई का स्तर घटिया है.
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शिक्षा विभाग के एक सूत्र ने बताया कि अक्टूबर 2024 में शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत ने भटवारी का दौरा किया था. उन्होंने हरसिल के इंटर स्कूल के बंद होने पर चिंता जताई थी, क्योंकि मां और बच्चे गांव छोड़कर जा रहे हैं. उनका कहना था, “माइग्रेशन कोई हल नहीं है.” पर जो माएं अपने बच्चों को लेकर शहर जा रही हैं, उनके लिए ये बात शायद खोखली लगे. गांव में स्कूल की घंटियां बजती तो हैं, लेकिन क्लासरूम आधे खाली रहते हैं. ये गांव अपनी खूबसूरती और शांति के लिए जाने जाते हैं, लेकिन अगर यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में यहां सिर्फ बुजुर्ग और खाली घर रह जाएंगे. सवाल ये है कि क्या सरकार स्कूलों को बेहतर कर पाएगी, या लोग अपने बच्चों के भविष्य के लिए गांव छोड़ते रहेंगे? अभी तो ये सिलसिला जारी है, और इसका असर गांवों के समाज और संस्कृति पर भी पड़ रहा है.
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वरिष्ठ पत्रकार शिवानी आजाद की टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में छपी रिपोर्ट का भाषा अनुवाद